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हिजरत - ग़ज़नफ़र कविता - Darsaal

हिजरत

वो आग़ोश जिस में पले

और पल कर जवाँ हम हुए हैं

उसे छोड़ने की तदाबीर करने में मसरूफ़ ऐसे हुए हैं

कि ज़िंदाँ से क़ैदी रिहाई की राहों की

ता'मीर करने में मशग़ूल होते हैं जैसे

वो आग़ोश जिस में जवाँ हम हुए हैं

उसे छोड़ कर दूर जाने के एहसास से

जो ख़ुशी मिल रही है

किसी भी तरह इस से कमतर नहीं है

जो ज़िंदाँ से बाहर निकलने में महसूस होती है ज़िंदानियों को

ख़ुश का ये एहसास

ऐसा नहीं कि फ़क़त एक हम तक ही महदूद हो

ये ख़ुशी घर के दीवार-ओ-दर में भी घर कर गई है

माँ बहन बाप भाई भी गर्दन उठाए हुए

अपने हम-सायों से कहते फिरते नज़र आ रहे हैं

कि मेरा क़मर भी अरब जा रहा है

शरीक-ए-सफ़र की रगों में भी ख़ुशियाँ उछलने लगी हैं

वो रातों की सब लज़्ज़तें भूल कर

जाने वाले की तय्यारियों में

बड़े चाव से मुंहमिक हो गई है

अजब जाँ-फ़िज़ा है ये हिजरत का मंज़र

मगर ये रिवायत है

मक्के से यसरिब को जाते हुए

मुस्तफ़ा और सारे सहाबी बहुत रो रहे थे

वतन की मोहब्बत इन्हें रोकती थी

जुदाई जिगर में तबर भौंकती थी

वो हिजरत का मंज़र बड़ा जाँ-गुसिल था

मगर आज हिजरत का मंज़र बदल सा गया है

ये मंज़र तो सच-मुच बड़ा जाँ-फ़िज़ा है

मगर ऐसा क्यूँ हुआ है

यहाँ तो मज़ालिम की वो सख़्तियाँ भी नहीं हैं

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