कल तक जो शफ़्फ़ाफ़ थे चेहरे आवाज़ों से ख़ाली थे
आड़ी-तिरछी सुर्ख़ लकीरें उन पर भी अब देखोगे
Gulzar
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अजीब शख़्स है पहले मुझे हँसाता है
मैं उस के झूट को भी सच समझ के सुनता हूँ
दफ़्तर में ज़ेहन घर निगह रास्ते में पाँव
कई ऐसे भी रस्ते में हमारे मोड़ आते हैं
सजा के ज़ेहन में कितने ही ख़्वाब सोए थे
तुम्हारे होते हुए लोग क्यूँ भटकते हैं
किसी के नर्म तख़ातुब पे यूँ लगा मुझ को
रफ़्ता रफ़्ता आँखों को हैरानी दे कर जाएगा
हमारे हाथ से वो भी निकल गया आख़िर
तेज़ होती जा रही है किस लिए धड़कन मिरी
महा-भारत