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यक़ीन जानिए इस में कोई करामत है - ग़ज़नफ़र कविता - Darsaal

यक़ीन जानिए इस में कोई करामत है

यक़ीन जानिए इस में कोई करामत है

जो इस धुएँ में मिरी साँस भी सलामत है

नज़र भी हाल मिरे दिल का कह नहीं पाती

ज़बाँ की तरह मिरी आँख में भी लुक्नत है

जो हो रहा है उसे देखते रहो चुप चाप

यही सुकून से जीने की एक सूरत है

मैं उस के झूट को भी सच समझ के सुनता हूँ

कि उस के झूट में भी ज़िंदगी की क़ुव्वत है

ये किस की आँख टिकी है उदास मंज़र पर

ये कौन है कि जिसे देखने की फ़ुर्सत है

कोई बईद नहीं ये भी इश्तिहार छपे

हमारे शहर में जल्लाद की ज़रूरत है

सिपर तमाम बदन के हवास डाल चुके

बस एक आँख है जिस में अभी बग़ावत है

दिल-ओ-दिमाग़ में रिश्ता नहीं जहाँ कोई

इक ऐसे जिस्म में जीना हमारी क़िस्मत है

कहीं भी जाएँ सज़ाएँ हमें ही मिलनी हैं

अदालतों की हमारी अजीब हिकमत है

हमारे बीच ये उक़्दा न खुल सका अब तक

किसे विसाल किसे हिज्र की ज़रूरत है

उसी को सौंप दिया हम ने मुंसिफ़ी की ज़माम

कि जिस के ख़्वाब में भी अक्स-ए-ग़ासबिय्यत है

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