तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे
तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे
जिस दिन तुम आँखें खोलोगे दुनिया को जब देखोगे
धीरे धीरे हर जानिब सन्नाटा सा छा जाएगा
सो जाएँगी रफ़्ता रफ़्ता आवाज़ें सब देखोगे
खम्बे सारे टूट चुके हैं छप्पर गिरने वाला है
बुनियादों पर जीने वालो ऊपर तुम कब देखोगे
शायद तुम भी मेरे जैसे हो जाओगे आँखों से
सहमे चेहरे गुंग ज़बानें ज़र्द बदन जब देखोगे
वो तो बाज़ीगर हैं उन का मक़्सद खेल दिखाना है
तुम तो फ़रज़ाने हो साहिब कब तक कर्तब देखोगे
पहले तो सरसब्ज़ रहोगे फिर पीले पड़ जाओगे
जिस दिन तुम भी रंग-नगर में सुर्ख़ कोई लब देखोगे
बैठे बैठे घर में यूँ ही पल पल घुट घुट मरना है
या निकलोगे घर आँगन से जीने का ढब देखोगे
कल तक जो शफ़्फ़ाफ़ थे चेहरे आवाज़ों से ख़ाली थे
आड़ी-तिरछी सुर्ख़ लकीरें उन पर भी अब देखोगे
खम्बे तो ये गाड़ चुके हैं रस्सी भी अब तानेंगे
ये भी खेल ही खुलेंगे इन के भी कर्तब देखोगे
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