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तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे - ग़ज़नफ़र कविता - Darsaal

तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे

तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे

जिस दिन तुम आँखें खोलोगे दुनिया को जब देखोगे

धीरे धीरे हर जानिब सन्नाटा सा छा जाएगा

सो जाएँगी रफ़्ता रफ़्ता आवाज़ें सब देखोगे

खम्बे सारे टूट चुके हैं छप्पर गिरने वाला है

बुनियादों पर जीने वालो ऊपर तुम कब देखोगे

शायद तुम भी मेरे जैसे हो जाओगे आँखों से

सहमे चेहरे गुंग ज़बानें ज़र्द बदन जब देखोगे

वो तो बाज़ीगर हैं उन का मक़्सद खेल दिखाना है

तुम तो फ़रज़ाने हो साहिब कब तक कर्तब देखोगे

पहले तो सरसब्ज़ रहोगे फिर पीले पड़ जाओगे

जिस दिन तुम भी रंग-नगर में सुर्ख़ कोई लब देखोगे

बैठे बैठे घर में यूँ ही पल पल घुट घुट मरना है

या निकलोगे घर आँगन से जीने का ढब देखोगे

कल तक जो शफ़्फ़ाफ़ थे चेहरे आवाज़ों से ख़ाली थे

आड़ी-तिरछी सुर्ख़ लकीरें उन पर भी अब देखोगे

खम्बे तो ये गाड़ चुके हैं रस्सी भी अब तानेंगे

ये भी खेल ही खुलेंगे इन के भी कर्तब देखोगे

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