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किसी के नर्म तख़ातुब पे यूँ लगा मुझ को - ग़ज़नफ़र कविता - Darsaal

किसी के नर्म तख़ातुब पे यूँ लगा मुझ को

किसी के नर्म तख़ातुब पे यूँ लगा मुझ को

कि जैसे सारे मसाइल का हल मिला मुझ को

किसी मक़ाम पे वो भी बिछड़ गई मुझ से

निगाह-ए-शौक़ जो देती थी हौसला मुझ को

कि हम-सफ़र को समझने लगा ख़िज़र अपना

ज़रूरतों ने कुछ ऐसा सफ़र दिया मुझ को

तमाम लोग ही दुश्मन दिखाई देते हैं

कोई बताए कि आख़िर ये क्या हुआ मुझ को

मैं तेरी कार का उखड़ा हुआ कोई पुर्ज़ा

सुकूँ तलब है तो मेरी जगह पे ला मुझ को

मिरा वजूद भी क़क़नुस से कम नहीं है मियाँ

यक़ीं न आए तो पूरी तरह जला मुझ को

मैं ऐसा नर्म तबीअत कभी न था पहले

ज़रूर लम्स कोई उस का छू गया मुझ को

मैं चाह कर भी तुझे क़त्ल कर न पाऊँगा

ये किस का दे दिया तू ने भी वास्ता मुझ को

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