ख़ला के दश्त से अब रिश्ता अपना क़त्अ करूँ
ख़ला के दश्त से अब रिश्ता अपना क़त्अ करूँ
सफ़र तवील है बेहतर है घर को लौट चलूँ
बुलंद होता है जब जब भी शोर नालों का
ख़याल आता है दिल में कि मैं भी चीख़ पड़ूँ
तुम्हारे होते हुए लोग क्यूँ भटकते हैं
कहीं पे ख़िज़्र नज़र आए तो सवाल करूँ
मआल जो भी हो जिस तरह भी कटे ये उम्र
तुम्हारे नाज़ उठाऊँ तुम्हारे रंज सहूँ
अधूरी अन-कही बे-रब्त दास्तान-ए-हयात
लहू से लिख नहीं सकता तो आँसुओं से लिखूँ
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