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सुख़न का लहजा गुमान-ख़ाने में रह गया है - ग़ज़नफ़र हाशमी कविता - Darsaal

सुख़न का लहजा गुमान-ख़ाने में रह गया है

सुख़न का लहजा गुमान-ख़ाने में रह गया है

मिरा ज़माना किसी ज़माने में रह गया है

जो तुझ को जाना है इस अँधेरे में ही चला जा

बस एक लम्हा दिया जलाने में रह गया है

अभी तही-दस्त मुझ को मत जान ऐ ज़माने

कि एक आँसू मिरे ख़ज़ाने में रह गया है

कभी जो हुक्म-ए-सफ़र हुआ तो खुला ये मुझ पर

जो पर सलामत था आशियाने में रह गया है

अजब तरह का अधूरापन है मिरे बयाँ में

सो मेरा क़िस्सा कहीं सुनाने में रह गया है

बहुत ज़रूरी था ख़ुद से मिलना मगर ग़ज़ंफ़र

ये कार-ए-दुनिया के ताने-बाने में रह गया है

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