Ghazal Poetry (page 463)
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर दौलत है कहाँ की दौलत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शब हम को जो उस की धुन रही है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रात के रहने का न डर कीजिए
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी