Ghazal Poetry (page 462)
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उस गली में जो हम को लाए क़दम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुम भी आओगे मिरे घर जो सनम क्या होगा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तू देखे तो इक नज़र बहुत है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी