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ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं - ग़यास मतीन कविता - Darsaal

ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं

ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं

क़फ़स-नसीब सही बाल-ओ-पर में हम भी हैं

वहीं से लूट गई रास्तों की तन्हाई

जहाँ पे उस ने ये जाना सफ़र में हम भी हैं

तो वो शजर जो सदा बर्ग-ओ-बार देता है

मिसाल-ए-आब-ए-निहाँ इस शजर में हम भी हैं

जिसे कहीं से समुंदर ने ला के फेंक दिया

तुम्हारे साथ इक ऐसे ही घर में हम भी हैं

किताब थे तो पढ़े जा सके न दुनिया से

लो अब चराग़ हुए रहगुज़र में हम भी हैं

ख़याल आग है शो'ला है फ़िक्र लौ अल्फ़ाज़

ये सब हुनर हैं तो फिर इस हुनर में हम भी हैं

'मतीन' शहर भी सहरा-नज़ाद है इतना

कि संग-ओ-ख़िश्त में दीवार-ओ-दर में हम भी हैं

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