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लिपट रही हैं जो तुझ से दुआएँ मेरी हैं - ग़यास अंजुम कविता - Darsaal

लिपट रही हैं जो तुझ से दुआएँ मेरी हैं

लिपट रही हैं जो तुझ से दुआएँ मेरी हैं

हवा का शोर नहीं है सदाएँ मेरी हैं

किसी भी राह से तुम आ सको तो आ जाना

कि शहर मेरा है सारी दिशाएँ मेरी हैं

उड़ा रहे हो यहाँ जिन की धज्जियाँ तुम भी

ये जान लो कि वो सारी रिदाएँ मेरी हैं

मुझे तो गाँव की मिट्टी है जान से भी अज़ीज़

वहाँ की गलियों में क्या क्या अदाएँ मेरी हैं

तुम्हें तो चाँदनी बन कर फ़ज़ा में घुलना है

शब-ए-सियाह की सारी बलाएँ मेरी हैं

पहन के जिस को हैं अग़्यार सुर्ख़-रू 'अंजुम'

वो सादगी से मुज़य्यन क़बाएँ मेरी हैं

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