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ख़ून-ए-दिल मुझ से तिरा रंग-ए-हिना माँगे है - ग़यास अंजुम कविता - Darsaal

ख़ून-ए-दिल मुझ से तिरा रंग-ए-हिना माँगे है

ख़ून-ए-दिल मुझ से तिरा रंग-ए-हिना माँगे है

या हथेली पे कोई नक़्श-ए-वफ़ा माँगे है

जो सदा देता रहा दार-ओ-रसन तोहफ़े में

हम फ़क़ीरों से वही हर्फ़-ए-दुआ माँगे है

क्या हुआ है कि रिफ़ाक़त का भरम रखने को

मुझ से महबूब मिरा ज़ख़्म नया माँगे है

शहर में धँसता है फ़ित्ने की नई दलदल में

क्या क़यामत है कि मेरा ही पता माँगे है

कुछ समझ में नहीं आता है मिज़ाज-ए-याराँ

जिस को देखो वही इज़हार-ए-वफ़ा माँगे है

वो तो वहशत में कभी समझे है मुझ को क़ातिल

और कभी कूचा-ए-क़ातिल का पता माँगे है

अक़्ल पर पर्दा पड़ा है कि सुख़नवर 'अंजुम'

दिन के माहौल में भी काली रिदा माँगे है

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