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बे-नियाज़-ए-बहार सा क्यूँ है - ग़यास अंजुम कविता - Darsaal

बे-नियाज़-ए-बहार सा क्यूँ है

बे-नियाज़-ए-बहार सा क्यूँ है

दिल को ज़ख़्मों से प्यार सा क्यूँ है

वो ख़फ़ा हैं कि हम ग़रीबों को

ग़म पे कुछ इख़्तियार सा क्यूँ है

मेरी आँखों के ख़्वाब तो ग़म हैं

वो मगर बे-क़रार सा क्यूँ है

अक्स उस में था किस के चेहरे का

आइना संगसार सा क्यूँ है

आहटें पास आ के दूर हुईं

हम को फिर इंतिज़ार सा क्यूँ है

क्या कोई संदली महक सी उड़ी

दिल मिरा पुर-ख़ुमार सा क्यूँ है

ज़िंदगी तल्ख़ है बहुत 'अंजुम'

फिर भी ज़ालिम से प्यार सा क्यूँ है

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