मुख़्तसर सी बात को भी मसअला कहते रहे
मुख़्तसर सी बात को भी मसअला कहते रहे
ज़िंदगी में आप को क्यूँ रहनुमा कहते रहे
बे-वफ़ा होने का फ़तवा दे दिया उन ने हमें
उम्र-भर जिन के सितम को हम वफ़ा कहते रहे
कर दिया मिस्मार उन ने एक पल में क़स्र-ए-दिल
जिन के ख़स्ता घर को भी हम ख़ुश-नुमा कहते रहे
हर घड़ी हर वक़्त हर पल हर जगह बे-ख़ौफ़ हम
वो हमारे थे हमारे हैं सदा कहते रहे
धीरे धीरे चल दिए उस राह पर हम भी 'सबीन'
रात-दिन सब जिस को ग़म की कर्बला कहते रहे
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