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न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले - ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी कविता - Darsaal

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

फ़साना भी अगर पढ़ लेते उनवाँ देखने वाले

हलाकत-ख़ेज़ ईजादों पे दुनिया फ़ख़्र करती है

कहाँ हैं इर्तिक़ा-ए-नौ-ए-इंसाँ देखने वाले

जो मुमकिन हो तुम अपने हाथ की रेखा खुरच डालो

कि हम हैं तो सही ख़्वाब-ए-परेशाँ देखने वाले

ये रख़्ने हैं ये दर हैं ये तिरे अज्दाद के सर हैं

इधर आ कतबा-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ देखने वाले

तुलू-ए-आफ़्ताब-ए-आगही क्या ख़ाक देखेंगे

हिक़ारत से मिरा चाक-ए-गरेबाँ देखने वाले

तो फिर कैसी नज़र-बंदी तिलसिमात-ए-तदब्बुर क्या

जो ख़ुद को देख लें जश्न-ए-चराग़ाँ देखने वाले

शिकस्त-ए-ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा मुक़द्दर ही सही 'ग़ौसी'

उन्हें देखेंगे फिर भी ता-ब-इम्काँ देखने वाले

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