सीढ़ियाँ

चढ़ती कहीं कहीं से उतरती हैं सीढ़ियाँ

जाने कहाँ कहाँ से गुज़रती हैं सीढ़ियाँ

यादों के झिलमिलाते सितारे लिए हुए

माज़ी की कहकशाँ से उतरती हैं सीढ़ियाँ

लेती हैं यूँ सफ़र में मुसाफ़िर का इम्तिहाँ

हमवार रास्तों पे उभरती हैं सीढ़ियाँ

करती हैं सर ग़ुरूर का नीचे उतार कर

पस्ती का सर बुलंद भी करती हैं सीढ़ियाँ

तारीकियों को ओढ़ के सोती हैं रात-भर

सूरज की रौशनी में निखरती हैं सीढ़ियाँ

हिलती नहीं हिलाए से साबित-क़दम तले

महकें अगर क़दम तो बहकती हैं सीढ़ियाँ

मिम्बर पे चढ़ के बैठती हैं वाइ'ज़ों के साथ

रिंदों से छेड़-छाड़ भी करती हैं सीढ़ियाँ

जब कोई हाल पूछने आए न मुद्दतों

अंदर से टूट-फूट के मरती हैं सीढ़ियाँ

यादों के फूँक फूँक के रखने पड़े क़दम

ज़ख़्मों से दिल के जब भी सँवरती हैं सीढ़ियाँ

लेती हैं बढ़ के सब के क़दम तो लगा मुझे

तन्हाई के अज़ाब से डरती हैं सीढ़ियाँ

यूँ दिल में तेरी बात उतरती है 'ख़्वाह-मख़ाह'

गहरे कुएँ में जैसे उतरती हैं सीढ़ियाँ

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