तीर जैसे कमान से निकला
तीर जैसे कमान से निकला
हर्फ़-ए-हक़ था ज़बान से निकला
क़ैद-ए-हस्ती से छूटने वाला
वक़्त के इम्तिहान से निकला
टिक न पाया हवा के झोंकों में
पर शिकस्ता उड़ान से निकला
शेर आया कछार से बाहर
और शो'ला मचान से निकला
ग़म वो काँटा कि आख़िरी दम तक
दिल को छोड़ा न जान से निकला
जब अजल झाँकती फिरी घर घर
कौन ज़िंदा मकान से निकला
ज़ुल्मतों का सफ़ीर था क्या था
साया इक साएबान से निकला
मस्लहत रोकती रही 'एजाज़'
था जो दिल में ज़बान से निकला
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