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अंदाज़-ए-फ़िक्र अहल-ए-जहाँ का जुदा रहा - ग़नी एजाज़ कविता - Darsaal

अंदाज़-ए-फ़िक्र अहल-ए-जहाँ का जुदा रहा

अंदाज़-ए-फ़िक्र अहल-ए-जहाँ का जुदा रहा

वो मुझ से ख़ुश रहे तो ज़माना ख़फ़ा रहा

आलम हयात का न कभी एक सा रहा

दुनिया में ज़िंदगी का तमाशा बना रहा

था हर क़दम पे अपने अज़ाएम का इम्तिहाँ

हर गाम हादसात का महशर बपा रहा

फूलों की अहद गुल में तिजारत तो ख़ूब की

पूछे कोई कि दामन-ए-गुलचीं में क्या रहा

बार-ए-गराँ था मेरे लिए अरसा-ए-हयात

जीने का तेरे ग़म से बहुत हौसला रहा

हर फ़िक्र हर अमल का है निय्यत पे इंहिसार

शैख़-ए-हरम भी बंदा-ए-हिर्स-ओ-हवा रहा

दुनिया अमल की राह में आगे निकल गई

ज़ाहिद तो ख़ानक़ाह में महव-ए-दुआ रहा

हम लाख मुस्कुराए तबस्सुम की ओट से

सोज़-ए-ग़म-ए-हयात मगर झाँकता रहा

'एजाज़' अहल-ए-जौर से नफ़रत रही उन्हें

हर ज़ुल्म उन की बज़्म में लेकिन रवा रहा

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