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शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए - ग़मगीन देहलवी कविता - Darsaal

शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए

शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए

कुछ हँसाना चाहिए और कुछ रुलाना चाहिए

ज़िंदगी क्यूँकर कटे बे-शग़ल इस पीरी में आह

तुम को अब उस नौजवाँ से दिल लगाना चाहिए

इस मैं सब राज़-ए-निहाँ हो जाएँगे हम पर अयाँ

फिर उसे इक बार घर अपने बुलाना चाहिए

फिर ये मुमकिन है कि मेरे पास तू इक दम रहे

कुछ न कुछ ऐ यार बस तुझ को बहाना चाहिए

गो बहुत होशियार आशिक़ ऐ परी-रू हैं तिरे

लेकिन उन में एक 'ग़मगीं' सा दिवाना चाहिए

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