तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
वहाँ तो छोड़ के आए हैं हम ग़ुबार अपना
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जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला
बस तेरे लिए उदास आँखें
हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं