तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
कभी कभी तो वो इस दिल पे बार बन के रहा
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ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला
हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा
हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
फिर यही रुत हो ऐन मुमकिन है