हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं
और उस की तेग़ हमारा ज़वाल चाहती है
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हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
बस तेरे लिए उदास आँखें