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जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है - ग़ालिब अयाज़ कविता - Darsaal

जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है

जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है

मिरी हयात सफ़र का मआल चाहती है

मैं वुसअतों का तलबगार अपने इश्क़ में हूँ

वो मेरी ज़ात में इक यर्ग़माल चाहती है

हमें ख़बर है कि उस मेहरबाँ की चारागरी

हमारे ज़ख़्मों का कब इंदिमाल चाहती है

तुम्हारे बाद मिरी आँख ज़िद पे आ गई है

वही जमाल वही ख़द्द-ओ-ख़ाल चाहती है

हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं

और उस की तेग़ हमारा ज़वाल चाहती है

हरी रुतों को इधर का पता नहीं मालूम

बरहना शाख़ अबस देख-भाल चाहती है

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