क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
हर पेच में इक दिल को लिया है लटका
ऐ शाना-ज़हे-क़िस्मत-ए-आली तेरी
क्या ख़ूब तिरे हाथ लगा है लटका
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उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
इक नज़र ने किया है काम तमाम
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ