कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
सरमा-ज़दा बाग़-ए-ज़िंदगानी पाया
जी ख़ाक लगे 'शोर' कि इस गुलशन में
जो फूल खिला उसी को फ़ानी पाया
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इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
अदम से हस्ती में जब हम आए न कोई हमदर्द साथ लाए
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं