कुछ काम नहीं गबरू मुसलमाँ से हमें
है कुफ़्र से कुछ बहस न ईमाँ से हमें
रहने के लिए दैर-ओ-हरम हैं यकसाँ
इक रोज़ सफ़र करना है फिर याँ से हमें
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ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
दौलत ने मुआ'विनत जो की तो क्या की
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम