जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
हर क़स्र में सौ नक़्श-ओ-निगार-ए-दौलत
पीरी आई तो 'शोर' साहब फिर क्या
सब ख़ाक में मिल गई बहार-ए-दौलत
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नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
अदम से हस्ती में जब हम आए न कोई हमदर्द साथ लाए
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
इक नज़र ने किया है काम तमाम
हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर
गिरजा में गए तो पारसाई देखी