ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
वो जिन का आसमाँ पे सर-ए-पुर-ग़ुरूर था
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कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
कुछ काम नहीं गबरू मुसलमाँ से हमें