शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
मंज़िल-ए-इश्क़ तय हुई दिल की
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इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
इक नज़र ने किया है काम तमाम
अदम से हस्ती में जब हम आए न कोई हमदर्द साथ लाए
नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
दिल में अपने आरज़ू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
जब जवानी गई छुड़ा कर हाथ
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
दौलत ने मुआ'विनत जो की तो क्या की
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का