जब जवानी गई छुड़ा कर हाथ
उस पे पीरी न कुछ चली दिल की
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दौलत ने मुआ'विनत जो की तो क्या की
जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
गिरजा में गए तो पारसाई देखी
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा