गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
ज़माना एक सा बस हर बरस नहीं चलता
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का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
गिरजा में गए तो पारसाई देखी
तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
जब जवानी गई छुड़ा कर हाथ
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी