इक नज़र ने किया है काम तमाम
आरज़ू भी तो थी यही दिल की
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तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
दौलत ने मुआ'विनत जो की तो क्या की
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
गिरजा में गए तो पारसाई देखी
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे