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वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा - गौतम राजऋषि कविता - Darsaal

वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा

वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा

अभी तक दिन पे है ठहरा हुआ सा

उदासी एक लम्हे पर गिरी थी

सदी का बोझ है पसरा हुआ सा

इधर खिड़की में था मायूस चेहरा

उधर भी चाँद है उतरा हुआ सा

करे है शोर यूँ सीने में ये दिल

समूचा जिस्म है बहरा हुआ सा

ये किन नज़रों से मुझ को देखते हो

रहूँ हर दम सजा-संवरा हुआ सा

सुखाने ज़ुल्फ़ वो आए हैं छत पर

है सूरज आज फिर सहरा हुआ सा

लिखा उस नाम का पहला ही अक्षर

मुकम्मल पेज है चेहरा हुआ सा

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