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लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया - गौतम राजऋषि कविता - Darsaal

लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया

लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया

है कौन वो जो वक़्त की साज़िश ये कर गया

अब उम्र तो ये बीत चली सोचते तुम्हें

इतना हुआ है हाँ कि ज़रा मैं सँवर गया

सिमटा था जब तलक वो हथेली में ठीक था

पहुँचा लबों पे लम्स तो नस-नस बिखर गया

यूँ तो दहक रहा था वो सूरज सा दूर से

जो पास जा के छू लिया कैसा सिहर गया

देखूँ तुझे क़रीब से फ़ुर्सत से चैन से

मेरा ये ख़्वाब मुझ को लिए दर-ब-दर गया

इक रोज़ तेरा नाम सर-ए-राह ले लिया

चलता हुआ ये शग़्ल अचानक ठहर गया

मिस्रा सिसक रहा था अकेला जो देर से

याद उस की आ गई तो ग़ज़ल में उतर गया

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