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शाइरी बात नहीं गर्म-ए-सुख़न होने की - गौहर होशियारपुरी कविता - Darsaal

शाइरी बात नहीं गर्म-ए-सुख़न होने की

शाइरी बात नहीं गर्म-ए-सुख़न होने की

शर्त ही और है शाइस्ता-ए-फ़न होने की

मैं कि हर-दम मुझे बालीदगी-ए-रूह की फ़िक्र

रूह को फ़िक्र है वारस्ता-ए-तन होने की

रम-ब-रम सिलसिला-ए-मौज-ए-ग़ज़ालान-ए-ख़याल

दश्त-ए-ग़ुर्बत को बशारत हो वतन होने की

परतव-ए-रंग से गुलगूँ हुआ मामूरा-ए-चश्म

धूम है कू-ए-तमाशा के चमन होने की

हक़-परस्ती को यहाँ कौन है आमादा-ए-दार

किस को तौफ़ीक़ है बे-गोर-ओ-कफ़न होने की

या बचेगा न सहर तक कोई दरमाँदा-ए-शब

या सहर ही नहीं ख़ाकम-ब-दहन होने की

दर्द की साल-गिरह ख़ैर से गुज़रे 'गौहर'

आ गई रात वही चाँद-गहन होने की

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