समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले
बजा दो पाँव की छागल कि नग़्मगी फैले
नक़ाब ज़ुल्फ़ों की चेहरे पे ख़ूब है लेकिन
हटा दो चाँद से बादल कि चाँदनी फैले
Anwar Masood
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नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
आसरा जब भी कोई टूटे है
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया