लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
दूसरों की ही मसर्रत को ख़ुशी समझा हूँ मैं
क्या बताऊँ कौन हूँ मैं ने तो देखा ही नहीं
आप ने जो कह दिया ख़ुद को वही समझा हूँ मैं
Allama Iqbal
Habib Jalib
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान