ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
और भी रिश्ते हैं लेकिन दोस्ती मज़हब मिरा
लखनऊ मेरा वतन है बम्बई मेरा नसीब
'तर्ज़' कहते हैं मुझे सब, मय-कशी मशरब मिरा
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ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
किस लिए अब हयात बाक़ी है
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच