जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
खिलखिलाहट में भी आवाज़-ए-सिनाँ हो जैसे
तीर चलते हुए देखूँ तो बचाऊँ दिल को
उफ़ वो अंगड़ाई कि अर्जुन की कमाँ हो जैसे
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बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच