हल्क़ा-ए-मय से किसी को भी निकलने न दिया
उठ के कुछ दूर भी मय-ख़ाने से चलने न दिया
दौर पर दौर चलाती रही इक मस्त नज़र
आज तो जाम भी साक़ी से बदलने न दिया
Wasi Shah
Gulzar
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जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
आसरा जब भी कोई टूटे है
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर