अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
जज़्बात हो रहे थे जवाँ पैरहन के बीच
क्या झिलमिली भी रोकती गोरे बदन की आँच
पिघला हुआ था शोला रवाँ पैरहन के बीच
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किस लिए अब हयात बाक़ी है
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया