आसरा जब भी कोई टूटे है
एक छाला सा दिल में फूटे है
क्या कहूँ उस के प्यार का आलम
फुलझड़ी सी बदन से छूटे है
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बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
किस लिए अब हयात बाक़ी है
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही