पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
देवता अपनी जगह और आदमी अपनी जगह
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Gulzar
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जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
किस लिए अब हयात बाक़ी है
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई