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रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही - गणेश बिहारी तर्ज़ कविता - Darsaal

रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही

रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही

कभी नज़्र-ए-ख़ाक-ए-सफ़र रही कभी मोतियों से भरी रही

तिरी इक निगाह से साक़िया वो बहार-ए-बे-ख़बरी रही

गुल-ए-तर वही गुल-ए-तर रहा वही डाल डाल हरी रही

तिरी बे-रुख़ी की निगाह थी कि जो हर ख़ता से बरी रही

मिरी आरज़ू की शराब थी कि जो जाम जाम भरी रही

दम-ए-मर्ग भी मिरी हसरतें हद-ए-आरज़ू से न बढ़ सकीं

उसी काले देव की क़ैद में मिरे बचपने की परी रही

दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए

न तो ग़म रहा न ख़ुशी रही न जुनूँ रहा न परी रही

वही 'तर्ज़' तुझ पे रहीम है ये उसी का फ़ैज़-ए-करीम है

कि असातिज़ा के भी रंग में जो ग़ज़ल कही वो खरी रही

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