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दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह - गणेश बिहारी तर्ज़ कविता - Darsaal

दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह

दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह

फ़र्ज़ के अंजाम देने की ख़ुशी अपनी जगह

हम तो सरगर्म-ए-सफ़र हैं और रहेंगे उम्र भर

मंज़िलें अपनी जगह आवारगी अपनी जगह

पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार

देवता अपनी जगह और आदमी अपनी जगह

ज्ञान माना है बड़ा भक्ती भी लेकिन कम नहीं

आगही अपनी जगह दीवानगी अपनी जगह

सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर

बंदगी अपनी जगह और मय-कशी अपनी जगह

सारा आलम है तरन्नुम-ख़ेज़ ऐ शाइर-नवाज़

शेर की अपनी जगह और 'तर्ज़' की अपनी जगह

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