ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
बात सच कहिए मगर यूँ कि हक़ीक़त न लगे
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सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
दिलों के आइने धुँदले पड़े हैं
दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
तिरी बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए