तिरे बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
दिखा कभी मेरे ख़्वाबों का आईना मुझ को
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रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
घर से बे-ज़ार हूँ कॉलेज में तबीअ'त न लगे
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
घर से बाहर नहीं निकला जाता
क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या
दश्त-ए-तन्हाई में जीने का सलीक़ा सीखिए
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था