मैं और मिरी ज़ात अगर एक ही शय हैं
फिर बरसों से दोनों में सफ़-आराई सी क्यूँ है
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निभेगी किस तरह दिल सोचता है
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद
ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी