किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती
सूरज नज़र आता है हमें रात गए भी
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चुप रहे देख के उन आँखों के तेवर आशिक़
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
दिलों के आइने धुँदले पड़े हैं
तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना
वो मौज-ए-ख़ुनुक शहर-ए-शरर तक नहीं आई
लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
साहब दिलों से राह में आँखें मिला के देख
तिरी बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए