घर से बाहर नहीं निकला जाता
रौशनी याद दिलाती है तिरी
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चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए
रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा
तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ
दश्त-ए-तन्हाई में जीने का सलीक़ा सीखिए
मंज़िलें सम्तें बदलती जा रही हैं रोज़ ओ शब
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
गुज़र रही है मगर ख़ासे इज़्तिराब के साथ
है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी